बुधवार, 21 मार्च 2012

ग़ज़ल .........(आईना भी मुझे बरगलाता रहा )

आईना यूँ   मुझे , बरगलाता रहा !
दाहिने को  वो बाँया दिखाता रहा !!

दुश्मनी की अदा देखिये तो सही !
करके एहसान, हरदम जताता रहा !!

तार खींचा ' फिर छोड़कर,चल दिया !
मैं बरस दर बरस झनझनाता रहा !!

उसने कोई शिकायत कभी भी की !
इस तरह  भी मुझे वो सताता रहा !!

मुझको मालूम था एक पत्थर है वो !
आदतन पर मैं सर को झुकाता रहा !!

ना फटा,ना बुझा, मन का ज्वालामुखी !
एक लावा सा बस खदबदाता रहा !!

देखिये तो "ललित "की ये जिद देखिये !
पायलें , पत्थरों से, गढ़ाता रहा !!

© 2011 lalit mohan trivedi All Rights Reserved

शनिवार, 15 जनवरी 2011

अलविदा .....कभी हम मीत रहे

---- गीत ----



थमना तुमको स्वीकार था , रफ़्तार रास मुझे आई !
तुमने चाहा विस्तार और , मैंने चाही थी गहराई !!



उड़ने की चाह थी मुझको , तुम रहे डूबने से डरते !
धरती ही अपने बीच थी , बतलाओ पाँव कहाँ धरते !
पानी पर लिक्खे समझौतों की, उम्र भला कितनी होती ,
कैसे निभ पाती साथ साथ , मेरी जिद तेरी निठुराई !


तुमने चाहा विस्तार.....................................


पाकर उन्मुक्त गगन को भी , तुम खुश हो सके थे मन में !
अपनी पहचान गंवाकर भी , हम आनंदित थे बंधन में !
इसको खुद्दारी कहूँ या कि , अभिमान मगर सच तो ये है ,
तुम कच्चे धागे ला सके , ज़ंजीर बांध मुझे पाई !!


तुमने चाहा विस्तार ....................................................


मैं दोष तुम्हें भी कैसे दूँ , सब अपनी धुन के मतवाले
तुम खन खन खन के अनुयायी , हम छन छन छूम छनन वाले !
इसलिए रेत और चरण चिन्ह , करें विसर्जित लहरों में ,
जिद में तेरे भी जले पंख , मैं भी भंवर से बच पाई !


तुमने चाहा विस्तार...............................................



















रविवार, 19 सितंबर 2010

ग़ज़ल

दिया लेकर, भरी बरसात में, उस पार जाना है !
उधर पानी, इधर है आग, दौनों से निभाना है !!

करो कुछ बात गीली सी , ग़ज़ल छेड़ो पढो कविता !
किसी को याद करने का , बहुत अच्छा बहाना है !!

मेरा आईना भी मेरी, बहुत तारीफ करता है !
मुझे लगता है सोने से, इसे भी मुंह ढाना है !!

मुहब्बत की डगर सीधी , मगर दस्तूर उलटे है !
अगर चाहो इसे पाना ,तो फिर जी भर लुटाना है !!

ये मंज़र प्यार में तुमने , अभी देखे कहाँ होंगे !
लिपटना है घटा से , प्यास, शबनम से बुझाना है !!

मुखौटे तोड़ने भी हैं , भरम जिंदा भी रखना है !
यहाँ पर कुफ्र है पीना , , लाजिम डगमगाना है !!

ये आंसू भी तो स्वाँती, बूँद से कुछ कम नहीं मेरे !
संवर जाये तो मोती है , बिखर जाये फ़साना है !!

मेरी बेचारगी को माफ़ करना जहाँ वालो !
ये किस्सा है हसीनों का , मशीनों को सुनाना है !!

अभी तक तो नहीं पाई , किसी ने भी यहाँ मंजिल !
वफ़ा की राह में देखें , हमारा क्या ठिकाना है !!



© 2008 lalit mohan trivedi All Rights Reserved

मंगलवार, 1 जून 2010

मैंने ही क्या किया ..............( गीत )

मैंने ही क्या किया किसी की लट उलझी सुलझाने को !
क्यों कोई जुल्फें बिखराता , मेरी धूप बचाने को !!

बांध बनाकर ये जलधारा जिसने साधी नहीं कभी !
दौनों हाथ जोड़कर जिसने , अँजुरी बाँधी नहीं कभी !

कोई नदिया रुकी नहीं है , उसकी प्यास बुझाने को !!
क्यों कोई जुल्फें बिखराता मेरी धूप बचाने को !!

जो लगते थे नमन प्रीत के , वो गरदन की अकड़न थी !
उसके मन में नृत्य नहीं था और पांव में जकड़न थी !

मैं पागल था जिद कर बैठा पायलिया गढ़वाने को !!
क्यों कोई जुल्फें बिखराता, मेरी धूप बचाने को !!

अहंकार से ऊपर उठकर ,अपनी आँखें खोलो तो !
जिसे तपस्या समझ रहे हो उसको ज़रा टटोलो तो !

वहां छुपी है 'चाह' अप्सरा आई नहीं रिझाने को !!
क्यों कोई जुल्फें बिखराता, मेरी धूप बचाने को !!

उसकी आँखों के आँसू से , अपने नयन भिगो सके !
कभी विरह में या कि मिलन में, लिपट लिपट कर रो सके !

बस लालायित रहे हमेशा, हम एहसान जताने को !!
क्यों कोई जुल्फें बिखराता, मेरी धूप बचाने को !!

' प्यार' हमारी अभिलाषाओं का विस्तार नहीं तो क्या है ?
तू मुझको दे ,मैं तुझको दूं , यह व्यापार नहीं तो क्या है ?

हमने प्रेम किया भी तो केवल सम्बन्ध भुनाने को !!
क्यों कोई जुल्फें बिखराता, मेरी धूप बचाने को !!


© 2008 lalit mohan trivedi All Rights Reserved

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

ग़ज़ल

घातों में कुछ नहीं मगर हाँ बातों में कुछ तो दम है !
अंधों को भी बेच दिया है मैंने सुरमा क्या कम है !!

तुम्हें भले संसार दिखाई पड़ता हो केवल सपना !
लेकिन मुझको तो लगता है जुल्फों में अब भी ख़म है !!

यूँ ही नहीं गँवाई हमने जान बेवजह पंडित जी !
खंज़र उसके हाथ सही पर आँख अभी उसकी नम है !!

जबसे कारा की खिड़की पर तूने ज़ुल्फ़ बिखेरी है !
तबसे सजा सुनाने वालों के चेहरों पर मातम है !!

अब तो इन जंजीरों को ही हमने पायल मान लिया !
लोहू तो रिसता रहता है , लेकिन पाँव छमाछम है !!


कारा -- जेल

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बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

टूट पायेंगे नहीं पत्थर ज़रा सी चोट से .........( गीत )

टूट पायेंगे नहीं पत्थर, ज़रा सी चोट से !
ये उड़ाने ही पड़ेंगे, भूमिगत विस्फोट से !!


जो ' विचारों ' का मसीहा था 'बिचारा ' हो गया है !
जिसको होना था भँवर ,वो ही किनारा हो गया है !
हम धरा को कोसते हैं, अंकुरण देती नहीं ,
क्यों नहीं कहते कि ये बादल नकारा हो गया है !

यदि ज़मीं को खोदकर पानी निकालोगे नहीं ,
छीन लेगा तो ये शबनम भी तुम्हारे होठ से !!
ये उड़ाने ही ..........................................


है महाभारत मगर अब कृष्ण भी खाली नहीं है !
और अब गाण्डीव में भी बात कल वाली नहीं है !
द्रौपदी ने केश तो खोले हैं पर सहमी हुई है ,
भीम में आक्रोश तो है किंतु बलशाली नहीं है !

भीष्म भी अन्याय का ही साथ देने तुल गए, तब
सामने करलो शिखण्डी , बाण मारो ओट से !!
ये उड़ाने ही ...........................................

शनिवार, 12 सितंबर 2009

है बिलाशक ये दरिया चमन के लिए .....( ग़ज़ल )

ग़ज़ल
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है बिलाशक ये दरिया ,चमन के लिए !
चन्द बूँदें तो रखलो तपन के लिए !!

बदमिज़ाजी न बादल की सह पाऊंगा !
मुझको मंज़ूर है प्यास मन के लिए !!

वो तगाफुल नहीं मुझसे कर पाएंगे !
चाहिए आहुती भी हवन के लिए !!

याद रखता है इतिहास केवल उन्हैं !
जो कफन ओढ़ पाते हैं फ़न के लिए !!

हम भरे जा रहे पृष्ठ पर पृष्ठ हैं !
ढाई आखर बहुत थे सृजन के लिये !!

घर जला है तो फ़िर कुछ जला ही नहीं !
' पर ' जलाए हैं हमने गगन के लिए !!

लाख सर हों तुम्हारे चरण पर मगर !
चाहिए एक कांधा थकन के लिए !!

सर उठाना तुम्हारा बहुत खूब पर !
एक देहरी तो रख्खो नमन के लिए !!


( तगाफुल --उपेक्षा,उदासीनता )


© 2008 lalit mohan trivedi All Rights Reserved

बुधवार, 15 जुलाई 2009

ढोते ढोते उजले चेहरे .....( ग़ज़ल )

ग़ज़ल ..........( भूली बिसरी .....)


ढोते ढोते उजले चेहरे, हमने काटी बहुत उमर !
अब तो एक गुनाह करेंगे ,पछता लेंगे जीवन भर !!


वो रेशम से पश्मों वाला, था तो सचमुच जादूगर !
मोर पंख से काट ले गया , वो मेरे लोहे के पर !!


उसको अगर देखना हो तो , आंखों से कुछ दूर रखो !
कुछ भी नहीं दिखाई देगा , आंखों में पड़ गया अगर !!


प्यास तुम्हारी तो पोखर के , पानी से ही बुझ जाती !
किसने कहा तुम्हें चलने को ,ये पनघट की कठिन डगर !!


ज्ञान कमाया जो रट रट कर , पुण्य कमाए जो डरकर !
उसकी एक हँसी के आगे ,वे सबके सब न्यौछावर !!


सिर्फ़ बहाने खोज रहा है , पर्वत से टकराने के !
बादल भरा हुआ बैठा है , हो जाने को झर झर झर !!


और भटकने दो मरुथल में , और चटखने दो तालू !
गहरी तृप्ति तभी तो होगी , गहरी होगी प्यास अगर !!



© 1992 Lalit Mohan Trivedi All Rights Reserved

रविवार, 14 जून 2009

वहीं तक पाँव हैं मेरे .......( ग़ज़ल )

ग़ज़ल
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वहीं तक पाँव हैं मेरे ,जहाँ तक है दरी मेरी !
इसी में सब समेटा है ,यही जादूगरी मेरी !!


हमें निस्बत गुलाबों से , वो है गुलकंद का हामी !
बचेगी पाँखुरी कैसे ,किताबों में धरी मेरी ?


खरी तो सुन नहीं सकते ,किताबों से दबे चहरे !
यहाँ पर काम आजाएगी ,शायद मसखरी मेरी !!


निशाना जो तेरा बेहतर ,नहीं कम मार अपनी भी !
तेरा खंज़र बजेगा और ,बजेगी खंज़री मेरी !!

 खुलकर हंस सका ना रो सका राहे-मोहब्बत में ! 
यहाँ भी आ गई आड़े , अकलमंदी मरी मेरी  !!    


ये जिद भी है कि अपना बीज , मिटटी में दबाऊँ क्यों !
शिकायत ये भी है , होती नहीं धरती हरी मेरी !!


तुम्हें फ़िर हो हो लेकिन , मुझे पूरा भरोसा है !
पड़ेगी एक दिन बांसों पै , भारी बाँसुरी मेरी !!


© 2008 lalit mohan trivedi All Rights Reserved

शनिवार, 9 मई 2009

खूब पता था वो सागर है खारा पानी है ......( गीत )

थोड़ी फुर्सत हो तो ही पढियेगा ,आग्रह है मेरा !इस आपाधापी और प्रतिस्पर्धा के युग में" हम जीवन कैसे जीते हैं और कैसे जीना चाहिए "के बीच सेतु तलाशती एक रचना !


गीत


खूब पता था वो सागर है खारा पानी है !
फिर भी प्यास बुझाने पहुंचे ये हैरानी है !!


बहुत दूर तक सन्नाटों ने राह नहीं छोड़ी
लेकिन हमने मीठे सुर की चाह नहीं छोड़ी

उधर नियति की और इधर अपनी मनमानी है .............


जीवन भर अपनी शर्तों पर जिसको जीना है
मीरा या सुकरात हलाहल उसको पीना है

सर कटवाकर जीने की हठ हमने ठानी है ................


बहुत कसे तारों को थोड़ा ढीला होना था
ढीले तारों को थोड़ा ठसकीला होना था

सुर के साथ हमेशा हमने की नादानी है ..................


आसमान को छू लेने की आस लगाली है
हमने बैठे ठाले अपनी प्यास बढाली है

छाया को कद समझ लिया है उस पर ज्ञानी है ?..........


अँजुरी भर अनुराग मिला तो आँगन सजा लिया
चुटकी भर वैराग मिला तो ओढा बिछा लिया

माया पूरी की पूरी तो हाथ आनी है ...................


ना तो गोताखोर बने ,जल में गहरे उतरे
फ़िर भी सागर की बातें करने से नहीं डरे

अपने साथ सही, लेकिन यह बेईमानी है ...............


दौड़ रहे है लोग भला हम क्यों रह जांय खड़े ?
यही सोचकर, जाने कितने ,अंधे, दौड़ पड़े

फ़िर इसको विकास कहते है ,अज़ब कहानी है ............


© 1992 Lalit Mohan Trivedi All Rights Reserved